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02:34, 9 मई 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=विनय प्रजापति 'नज़र'
}}
[[category: गीत]]
<poem>
'''लेखन वर्ष: 2004
तन्हाई में भी हम दोनों साथ हैं
यूँ लगता है मानो हाथों में हाथ हैं
वह पहली शाम जब देखा था तुम्हें
मैं आज तक भूला नहीं हूँ
वह पहली झलक’ वह पहली हँसी
मैं आज तक भूला नहीं हूँ
दूर होकर भी हम-दोनों साथ हैं
यूँ लगता है मानो हाथों में हाथ हैं
तुम जो आती थी’ तुम जो जाती थी
जैसे उड़ते बादलों में चाँद छिपता है
आती है बहुत तेरी याद मुझे
जब उड़ते बादलों में चाँद छिपता है
उलझे हुए दोनों के जज़्बात हैं
यूँ लगता है मानो हाथों में हाथ हैं
तुम याद आती हो मुझे इस तरह
मैं ख़ुद को भी भूल गया हूँ
तेरे सपनों में खोया हूँ आठों पहर
सारा ज़माना भूल गया हूँ
दो अन्जान मुसाफ़िर जो साथ हैं
यूँ लगता है मानो हाथों में हाथ हैं
</poem>