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चार पंक्तियाँ / प्रभाकर माचवे
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13:30, 31 अगस्त 2006
निर्जन की जिज्ञासा है निर्झर की तुतली बोली में <br>
विटपों के हैं प्रश्नचिन्ह विहगों की वन्य ठिठोली में <br>
इंगित हैं' कुछ और पूछ लूँ' इन्द्रचाप की रोली में <br>
संशय के दो कण लाया हूँ आज ज्ञान की झोली में । <br>
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घनश्याम चन्द्र गुप्त