बदले की धुंधुआती आग में धुँआते हुए
उन्हें कोई महामूर्ख चाहिए था।
उन्हें कोई काला-कलूटा, भदेस एक
मिट्टी का माधो चाहिए था।
मछलिया पकड़ता हुआ कालू मल्लाह
या गाएँ चराता हुआ बुद्धू गोपाल
हल चलाता हुआ गबदू हलवाहा
या लकड़ियाँ काटता हुआ भोलू लकड़हारा--
जो सहज ही उनकी चकाचौंध से चकित रह जाए
अपने भोलेपन को, मिट्टी में सँवराई अपनी
सज्जनता को जो श्रद्धागद्गद् हो अर्पित कर दे,
जो उनके दिए हुए कृत्रिम गूंगेपन को
महज़ एक भोली-सी लालच में ओढ़ ले
और उसे मौन का विशाल अश्वत्थ घोषित कर
वाक् की कटार को साबुत ही लील जाए।
जो उनके मोर्चा-लगे ताम्रपत्रों की रक्षा में योग दे
जो उनकी टूटी बैसाखियाँ फिर जोड़ दे
जो उनकी छिपी हुई कायर बर्बरता को बल दे
जो बिना जाने ही सिंहासन-रक्षा में उनका सहयोगी हो
जो अपने निपट भोलेपन में ’सच’ की दोनों आँखें फोड़ दे
और उन्हीं की तरह ’ब्राह्मण’ कहलाने का झूठा
:::अधिकार प्राप्त करे।
मौन के विराट अश्वत्थ की उस ऊँची डाल पर बैठा था
वह मेरा कृष्णकाय, गहरा, प्रशान्त और अंधियारा मौन।
वह ऊँची डाल सदियों से बंझा हो चुकी थी
मौन के विराट अश्वत्थ में वह बंझा डाल चुपचाप
हरा-हरा ज़हर बन अन्दर को रेंग रही थी
वह बंझा डाल मेरे उस कृष्णकाय, गहरे अंधियारे मौन में
अपना वह कृत्रिम गूंगापन चुपचाप घोल रही थी
वह बंझा डाल अपने उस कृत्रिम गूंगेपन से
वाणी के अनहोने सच को लगातार-लगातार
अपमानित कर, एक घुटन भरी,
बदबूदार पोथी में बन्द करा रही थी
वह बंझा डाल-- चारों ओर, अनवरत, असीम
अन्तःस्थिति पैल रही थी--अन्दर-अन्दर
जनता के मन में, निर्णय के क्षणों में, शासन-तंत्र में
बच्चों की आँखों में, योद्धा के पौरुष में
कवि के असीम काव्य-मौन में।
वह उनकी समझ में नहीं आया--
मौन के विराट अश्वत्थ की उस ऊँची डाल पर
कृष्णकाय, गहरे, प्रशान्त उस अंधियारे मौन का बैठना
वह उनकी समझ में नहीं आया।
शब्दहीन खट-खट से, शब्दहीन, एकाकी
दृढ़ निरन्तरता से आँख मूंद
शब्दहीन हवा में चमचमाती
मौन की कुल्हाड़ी से
उस गूंगे मौन को छिन्न-भिन्न करना--
वह उनकी समझ में नहीं आया
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