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{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
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प्‍यार के पल में जलन भी तो मधुर है।


जानता हूँ दूर है नगरी प्रिया की,

पर परीक्षा एक दिन होनी हिया िकी,

प्‍यार के पथ की थकन भी तो मधुर है;

प्‍यार के पल में जलन भी तो मधुर है।


आग ने मानी न बाधा शैल-वन की,

गल रही भुजपाश में दीवार तन की,

प्‍यार के दर पर दहन भी तो मधुर है;

प्‍यार के पल में जलन भी तो मधुर है।


साँस में उत्‍तप्‍त आँधी चल रही है,

किंतु मुझको आज मलयानिल यही है,

प्‍यार के शर की शरण भी तो मधुर है;

प्‍यार के पल में जलन भी तो मधुर है।


तृप्‍त क्‍या होगी उधर के रस कणों से,

खींच लो तुम प्राण ही इन चुंबनों से,

प्‍यार के क्षण में मरण भी तो मधुर है;

प्‍यार के पल में जलन भी तो मधुर है।
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