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उच्छल सागर-सा चला कर्ण को लिये क्षुब्ध सैनिक समूह .<br>
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अङगार-वृष्टि पा धधक उठ उठे जिस तरह शुष्क कानन का तृण ,<br>
सकता न रोक शस्त्री की गति पुञ्जित जैसे नवनीत मसृण .<br>
यम के समक्ष जिस तरह नहीं चल पाता बध्द बद्ध मनुज का वश ,<br>
हो गयी पाण्डवों की सेना त्योंही बाणों से विध्द, विवश .<br>
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सुन-सुन निनाद की धमक शत्रु का, व्यूह लरजता था क्षण-क्षण .<br>
अरि की सेना को विकल देख, बढ चला और कुछ समुत्साह ;<br>
कुछ और समुद्वेलित होकर, उमडा उमड़ा भुज का सागर अथाह .<br>
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गरजा अशङक अशंक हो कर्ण, &#39;&#39;शल्य ! देखो कि आज क्या करता हूं ,<br>कौन्तेय-कृष्ण, दोनों को ही, जीवित किस तरह पकडता पकड़ता हूं .<br>
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बस, आज शाम तक यहीं सुयोधन का जय-तिलक सजा करके ,<br>
लौटेंगे हम, दुन्दुभि अवश्य जय की, रण-बीच बजा करके .<br>
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इतने में कुटिल नियति-प्रेरित पड ग़ये गये सामने धर्मराज ,<br>
टूटा कृतान्त-सा कर्ण, कोक पर पडे टूट जिस तरह बाज .<br>
लेकिन, दोनों का विषम युध्दयु्द्ध, क्षण भर भी नहीं ठहर पाया ,<br>सह सकी न गहरी चोट, युधिष्ठर युधिष्ठिर की मुनि-कल्प, मृदुल काया .<br>
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भागे वे रण को छोड, क़र्ण ककर्ण ने झपट दौडक़र दौड़कर गहा ग्रीव ,<br>
कौतुक से बोला, &#39;&#39;महाराज ! तुम तो निकले कोमल अतीव .<br>
हां, भीरु नहीं, कोमल कहकर ही, जान बचाये देता हूं .<br>
क्या काम साधुओं का, कहिये, इस महाघोर, घातक रण में ?<br>
मत कभी क्षात्रता के धोखे, रण का प्रदाह झेला करिये,<br>
जाइये, नहीं फिर कभी गरुड क़ी की झपटों से खेला करिये .&#39;&#39;<br>
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भाग भागे विपन्न हो समर छोड ग्लानि में निमज्जित धर्मराज ,<br>
सोचते, &#39;कहेगा क्या मन में जानें, यह शूरों का समाज ?<br>
प्राण ही हरण करके रहने क्यों नहीं हमारा मान दिया ?<br>
कर दिया मुक्त हंस कर उसने भीतर से कुछ इङिगत पाकर .<br>
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देखता रहा सब श्लयशल्य, किन्तु, जब इसी तरह भागे पवितन ,<br>
बोला होकर वह चकित, कर्ण की ओर देख, यह परुष वचन ,<br>
&#39;&#39;रे सूतपुत्र ! किसलिए विकट यह कालपृष्ठ धनु धरता है ?<br>
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हंसकर बोला राधेय, &#39;&#39;शल्य, पार्थ की भीति उसको होगी ,<br>
क्षयमान्, क्षनिकक्षणिक, भंगुर शरीर पर मृषा प्रीति जिसको होगी .<br>
इस चार दिनों के जीवन को, मैं तो कुछ नहीं समझता हूं ,<br>
करता हूं वही, सदा जिसको भीतर से सही समझता हूं .<br>
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&#39;&#39;सब आंख मूंद कर लडते हैं, जय इसी लोक में पाने को ,<br>
पर, कर्ण जूझता है कोई, ऊंचा सध्दर्म सद्धर्म निभाने को ,<br>सबके समेत पङिकल पंकिल सर में, मेरे भी चरण पडेंग़े क्या ?<br>
ये लोभ मृत्तिकामय जग के, आत्मा का तेज हरेंगे क्या ?