{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार: [[=तेजेन्द्र शर्मा]][[Category:कविताएँ]]}}[[Category:तेजेन्द्र शर्मा]]<poem>मस्जिदें ख़ामोश हैं, मंदिर सभी चुपचाप हैंकुछ डरे से वो भी हैं, और सहमें सहमें आप हैं
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~वक्त है त्यौहार का, गलियाँ मगर सुनसान हैंधर्म और जाति के झगडे़ बन गये अब पाप हैं
मस्जिदें ख़ामोश हैं, मंदिर सभी चुपचाप हैं<br>रिश्तों की भी अहमियत अब ख़त्म सी होने लगीकुछ डरे से वो भी हैं, और सहमें सहमें आप भेस में अपनों के देखो पल रहे अब सांप हैं<br><br>
वक्त है त्यौहार कामुंह के मीठे, गलियाँ मगर सुनसान पीठ मुड़ते भोंकते खंजर हैं<br>जोधर्म और जाति के झगडे़ बन गये अब पाप दाग़ हैं इक बदनुमा, इंसानियत पर, शाप हैं<br><br>
रिश्तों की भी अहमियत अब ख़त्म सी होने लगी<br>भेस में अपनों के देखो पल रहे अब सांप हैं<br><br> मुंह के मीठे, पीठ मुड़ते भोंकते खंजर हैं जो<br>दाग़ हैं इक बदनुमा, इंसानियत पर, शाप हैं<br><br> राम हैं हैरान, ये क्या हो रहा संसार में<br>क्यों भला रावण का सब मिल, कर रहे अब जाप हैं<br><br/poem>