|संग्रह= रश्मिरथी / रामधारी सिंह 'दिनकर'
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कर्ण विकल हो खड़ा हुआ कह, 'हाय! किया यह क्या गुरुवर?
अब किस सुख के लिए मुझे धरती पर जीने देते हैं?'
मेरा संचित निखिल ज्ञान तूने मझसे ही पाया है।
'रहा नहीं ब्रह्मास्त्र एक, इससे क्या आता-जाता है?
नये भाव, नूतन उमंग से , वीर बने रहते नूतन।
'तुम तो स्वयं दीप्त पौरुष हो, कवच और कुण्डल-धारी,
भारत का इतिहास कीर्ति से और धवल कर जाओगे।
'अब जाओ, लो विदा वत्स, कुछ कड़ा करो अपने मन को,
सोच-सोच यह बहुत विकल हो रहा, नहीं जानें क्यों मन?
देखो मत यों सजल दृष्टि से, व्रत मेरा मत भंग करो।
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