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'''(बीस बरस के उस नौजवान के जज्बात,जिसकी माँ उसी दिन मर गयी गई जिस दिन वह पैदा हुआ)'''
ये मस्त-मस्त घटा ये भरी-भरी बरसात
तमाम हद्दे-नजर नज़र तक घुलावटों का समाँ!
फ़जा-ए-शाम में डोरे-से पड़ते जाते हैं
जिधर निगाह करें कुछ धुआँ सा उठता है
दहक उठा है तरावट की आँच से आकाश
जे-फ़र्श-ता-फ़लक अँगड़ाइयों अंगड़ाइयों का आलम हैये मद भरी हुई पुर्वाइयाँ पुरवाइयाँ सनकती हुई
झिंझोड़ती है हरी डालियों को सर्द हवा
ये शाख़सार के झूलों में पेंग पड़ते हुये
मेरे मकान के आगे है एक सह्‌ने-वसीअ(विशाल दालान)
कभी वो हँसती नजर नज़र आती कभी वो उदास
उसी के बीच में है एक पेड़ पीपल का
सुना है मैंने बुजु़र्गों से ये कि उम्र इसकी
जो कुछ न होगी तो होगी कोई छियानवे साल
छिड़ी थी हिन्द में जब पहली जंगे-आजादीआज़ादी
जिसे दबाने के बाद उसको ग़द्‌र कहने लगे
ये अह्‌ले हिन्द भी होते हैं किस क़दर मासूम!
वो दारो-गीर वो आजा़दीआज़ा़दी-ए-वतन की जंग
वतन से थी कि ग़नीमे-वतन (देश के दुश्मन)से ग़द्दारी
बिफर गये बिफ़र गए थे हमारे वतन के पीरो-जवाँ(बूढ़े-जवान)
दयारे-हिन्द में रन पड़ गया चार तरफ़
उसी ज़माने में ,कहते हैं,मेरे दादा ने
सुना है रावियों से दीदनी(देखने योग्य) थी उसकी उठान
हर-इक के देखते ही देखते चढ़ा पर्वानपरवान
वही है आज ये छतनार पेड़ पीपल का
वही है आज ये छतनार पेड़ पीपल का
वो टहनियों के कमण्डल लिये,जटाधारी
ज़माना देखे हुये हुए है ये पेड़ बचपन सेरही है इसके लिये लिए दाख़िली कशिश मुझमें
रहा हूँ देखता चुपचाप देर तक उसको
मैं खो गया हूँ कई बार इस नजारे नज़ारे मेंवो उसकी गहरी जड़ें थीं कि जिन्दगी ज़िन्दगी की जड़ें
पसे-सुकूने-शजर कोई दिल धड़कता था
मैं देखता था कभी इसमें जिन्दगी ज़िन्दगी का उभार
मैं देखता था उसे हस्ती-ए-बशर की तरह
कभी उदास,कभी शादमा,कभी गम्भीर!
फ़जा का सुरमई रंग और हो चला गहरा
धुला-धुला-सा फ़लक है धुआँ-धुआँ-सी है शाम
है झुटपुटा की कोई अज़दहा है मायले-ख्वाबख़्वाबसुकूते-शाम में दरमान्दगी(थकन) का का आलम हैरुकी-रुकी सी किसी सोच में है मौजे़मौज़ें-सबा
रुकी-रुकी सी सफ़ें मलगजी घटाओं की
उतार पर है सरे-सह्‌न रक्स पीपल का
ख़ुद अपनी कैफ़ियत-नीलगूँ में हर लह्‌जा
ये शाम डूबती जाती है छिपती जाती है
हिजाबे-वक्‍़त वक़्त सिरे से है बेहिसो-हरकतरुकी-रुकी दिले-फ़ितरत की धड़कनें यकलख्‍़तयकलख़्त
ये रंगे-शाम कि गर्दिश हो आसमाँ में नहीं
बस एक वक्‍़फ़ावक्फ़ा-ए-तारीक,लम्हा-ए-शह्‌ला
समा में जुंबिशे-मुबहम-सी कुछ हुई ,फौ़रन
तुली घटा के तले भीगे-भीगे पत्तों से
हरी-हरी कई चिंगारियाँ-सी फूट पड़ीं
कि जैसे खुलती-झपकती हों बेशुमार आँखें
अजब ये आँख-मिचौली थी नूरो-जु़लमत (अँधेराअंधेरा-रोशनी)की
सुहानी नर्म लवें देते अनगिनत जुगनू
घनी सियाह खु़नक पत्तियों के झुरमुट से
छलक-छलक पड़े जैसे बग़ैर सान-गुमान
बतूने-शाम में इन जिन्दा क़ुमक़ुमों की चमक
किसी की सोयी सोई हुई याद को जगाती थी-
वो बेपनाह घटा वो भरी-भरी बरसात
वो सीन देख के आँखें मेरी भर आती थीं
मेरी हयात ने देखीं हैं बीस बरसातें
मेरे जनम ही के दिन मर गयी गई थी माँ मेरी
वो माँ कि शक्ल भी जिस माँ कि मैं न देख सका
जो आँख भर के मुझे देख भी सकी न ,वो माँ
वो मुझसे कहती थीं जब घिर के आती थी बरसात
जब आसमान में हरसू(चारों तरफ) घटाएँ छाती थीं
बवक्‍़तेबवक़्ते-शाम जब उड़ते थे हर तरफ़ जुगनूदिये दिए दिखाते हैं ये भूली भटकी रूहों को!
मजा़ भी आता था मुझको कुछ उनकी बातों में
मैं उनकी बातों में रह-रह के खो भी जाता था
ये सोच कर मेरी हालत अजीब हो जाती
पलक की ओट से जुगनू चमकने लगते थे
कभी-कभी तो मेरी हिचकियाँ -सी बँध बंध जातीं
कि माँ के पास किसी तरह मैं पहुँच जाऊँ
और उसको राह दिखाता हुआ मैं घर लाऊँ
दिखाऊँ अपने खिलौने दिखाऊँ अपनी किताबक़िताबकहूँ कि पढ़ के सुना तू मेरी किताब क़िताब मुझे
फिर उसके बाद दिखाऊँ उसे मैं वो कापी
कि टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें बनी थीं कुछ जिसमें
ये हर्फ़ थे जिन्हें लिक्खा था मैंने पहले-पहल
दिखाऊँ फिर उसे आँगन आंगन में वो गुलाब की बेल
सुना है जिसको उसी ने कभी लगाया था
ये जब की बात है जब मेरी उम्र ही क्या थी
हमारे शहर में आती थी घिर के जब बरसात
जब आसमान में उड़ते थे हर तरफ़ जुगनू
हवा की मौ-रवाँ पर दिये जलाये हुयेहुएफ़जा में रात गये गए जब दरख्त पीपल का
हज़ारों जुगनुओं से कोहे-तूर(रोशनी का पहाड़) बनता था
हजारों वादी-ए-ऐमन थीं जिसकी शाखों में
बढा़या प्यार कभी करके प्यार में न कमी
जो मुँह बना के किसी दिन न मुझसे रूठ सकी
जो ये भी कह न सकी-जा न बोलूँगी बोलूंगी तुझसे!
जो एक बार ख़फा़ भी न हो सकी मुझसे
वो जिसको जूठा लगा मुँह कभी दिखा न सका
गुज़र रहे थे महो-साल और मौसम पर
इसी तरह कई बरसात आयीं आईं और गयींगईंमैं रफ्‍़तारफ़्ता-रफ्‍़ता रफ़्ता पहुँचने लगा बसिन्ने-शऊर
तो जुगनुओं की हकीकत समझ में आने लगी
अब उन खिलाइयों और दाइयों की बातों पर
करे नज़ारा-ए-कौनेन(विश्व दर्शन) इक घिरौंदे में
उठा के रख ले ख़ुदाई को जो हथेली पर
करे दवाम को जो कैद क़ैद एक लमहे में
सुना? वो का़दिरे-मुतलक़(ईश्वर) है एक नन्हीं सी जान
खु़दा भी सजदे में झुक जाये जाए सामने उसकेये अक्‍़लोअक्लो-फ़ह्‌म (बुद्दि-ज्ञान) बड़ी चीज चीज़ है मुझे तसलीम(स्वीकार)
मगर लगा नहीं सकते हम इसका अन्दाजा़
कि आदमी को ये पड़ती है किस क़दर महँगी
इक-एक कर के वो तिफ़ली(बालपन) के हर ख़याल की मौत
बुलूगे-सिन में सदमें नये नए ख़यालों केनये नए ख़याल का धक्का नये नए ख़यालों की टीसनये नए तसव्वुरों का कर्ब़(यातना),अलअमाँ(खुदा पनाह दे) ,कि हयाततमाम ज़ख्‍़मेजख़्मे-निहाँ(छिपा घाव) हैं तमाम नशतर हैंये चोट खा के सँभलना सम्भलना मुहाल होता हैसुकून रात का जिस वक्‍़त वक़्त छेड़ता है सितार
कभी-कभी तेरी पायल से आती है झंकार
तो मेरी आँखों से आँसू बरसने लगते हैं
जो तुमसे हो सके ऐ माँ! वो तरीका बता
तू जिसको पाले वो काग़ज़ उछाल दूँ कैसे
ये नज्‍़म नज़्म मैं तेरे कदमों क़दमों में डाल दूँ कैसे
नवाँ-ए- दर्द(दर्द की आवाजआवाज़) से कुछ जी तो हो गया हलका
मगर जब आती है बरसात क्या करूँ इसको
जब आसमान प उड़ते हैं हर तरफ़ जुगनू
शराबे-नूर लिये सब्ज़ आबगीनों(प्यालों) में
कँवल ज़लाते हुये जु़लमतों के सीनों में
जब उनकी ताबिशे-बेसाख्‍़ता बेसाख़्ता से पीपल कादरख्‍़त दरख़्त सरवे-चरागाँ को मात करता है
न जाने किस लिए आँखें मेरी भर आती हैं!
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