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रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 3

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|संग्रह= रश्मिरथी / रामधारी सिंह 'दिनकर'
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मैत्री की राह बताने को, सबको सुमार्ग पर लाने को,[[रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 2|<< तृतीय सर्ग / भाग 2]] | [[रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 4 | तृतीय सर्ग / भाग 4 >>]]
 मैत्री की राह बताने को,  :सबको सुमार्ग पर लाने को, दुर्योधन को समझाने को,  :भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
'दो न्याय अगर तो आधा दो,
'दो न्याय अगर तो आधा दो, :पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,  :रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
दुर्योधन वह भी दे ना सका,
दुर्योधन वह भी दे ना सका, :आशिष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,  :जो था असाध्य, साधने चला।
जन नाश मनुज पर छाता है,
हरि ने भीषण हुंकार किया,
हरि ने भीषण हुंकार किया, :अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,  :भगवान् कुपित होकर बोले-
'जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, गगन मुझमें लय है, :यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,  :मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
'उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
'उदयाचल मेरा दीप्त भाल, :भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,  :मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
'दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
'दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख, :मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,  :नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।
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