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नींव / कविता वाचक्नवी

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'''नींव'''

दीवारें
चिन लीं तुमने
अपनी छतों के घेराव में।
वे
ढाँपती रहीं, ओटती र्हैं
सजती रहीं, झरती रहीं
खुरती रहीं, झरती रहीं।
नवनिर्माण की लिप्सा में
जब ढहने लगे घर
समेटकर पहुँच गये
किसी ओर छाँव, लोग
और दीवारें
नकारती रहीं ध्वंस
तोड़ती रहीं चोटें,
बिखर-बिखर
वहीं ढेर हो गई - वे।
दब गई
नवसृजन की नींव में।
</poem>