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09:29, 2 जुलाई 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=शाद अज़ीमाबादी
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निकहते-गुल<ref>फूल की गंध</ref> बहुत इतराई हुई फिरती है।
वोह कहीं खोल भी दें तुर्रये-गेसू<ref>चोटी</ref> अपना।
निकहते-ख़ुल्देबरीं<ref>जन्नत-जैसी सुगन्ध</ref> फैल गईं कोसों तक।
वोह नहा कर जो सुखाने लगे गेसू अपना॥
लिल्लाह हम्द! कदूरत<ref>द्वेष-भावना</ref> नहीं रहने पाती।
मुँह धुला देता है हर सुबह को आँसू अपना॥
गम में परवाना-ये-मरहूम के<ref>मृतक पतंगे के</ref>थमते नहीं अश्क।
शमअ़! ऐ शमअ़! ज़रा देख तो मुँह तू अपना॥
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