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{{KKRachna
|रचनाकार=शाद अज़ीमाबादी
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रुस्वाइयाँ ग़ज़ब की हुईं तेरी राह में।
हद है कि ख़ुद ज़लील हूँ अपनी निगाह में॥

मैं भी कहूँगा देंगे जो आज़ा<ref>इंद्रियां</ref> गवाहियाँ।
या रब! यह सब शरीक थे मेरे गुनाह में॥

थी जुज़वे-नातवाँ<ref>निर्बलता के परमाणु</ref> किसी ज़र्रे में मिल गई।
हस्ती का क्या वजूद तेरी जलवागाह में॥

ऐ ‘शाद’! और कुछ न मिला जब बराये नज़्र<ref>ईश्वर को भेंट करने के लिए</ref>।
शर्मिंदगी को लेके चले बारगाह में<ref>मंदिर में</ref>॥


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