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|रचनाकार=मैथिलीशरण गुप्त
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<poem>
किसी जन ने किसी से क्लेश पाया
 
नबी के पास वह अभियोग लाया।
 
मुझे आज्ञा मिले प्रतिशोध लूँ मैं।
 
नही निःशक्त वा निर्बोध हूँ मैं।
 
उन्होंने शांत कर उसको कहा यों
 
स्वजन मेरे न आतुर हो अहा यों।
 
चले भी तो कहाँ तुम वैर लेने
 
स्वयं भी घात पाकर घात देने
 
क्षमा कर दो उसे मैं तो कहूँगा
 तुम्हारे शील का साक्षी रहूँगारहूंगादिखावो बंधु क्रम -विक्रम नया तुम 
यहाँ देकर वहाँ पाओ दया तुम।
</poem>
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