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अमरनाथ साहिर

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सदा-ए-वस्ल बामे-अर्श से आती है कानों में--।
"मुहब्बत के मज़े इस दार पर चढ़कर निकलते हैं"||  क़तरा दरिया है अगर अपनी हक़ीक़त जाने। खोये जाते हैं जो हम आपको पा जाते हैं॥  कहाँ दैरो-हरम में जलवये-साकी़-ओ-मय बाक़ी? चलें मयख़ाने में और बैअ़ते-पीरेमुग़ाँ कर लें॥  परेपरवाज़ उनका लायेंगे गर ला-मकाँ भी हो। तुम्हें हम ढूँढ़ लायेंगे कहीं भी हो, जहाँ भी हो॥  हुस्न क्या हुस्न है जल्वा जिसे दरकार न हो। यूसफ़ी क्या है जो हंगाम-ए-बाज़ार न हो॥  बेतमन्नाई ने बरहम रंगे-महफ़िल कर दिया। दिल की बज़्म-आराइयाँ थीं आरज़ू-ए-दिल के साथ॥