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|रचनाकार= अमजद हैदराबादी
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<poem>
किस तरह नज़र आये वो परदानशीं ‘अमजद’!
हर परदे के बाद और एक परदा नज़र आता है॥
वो करते हैं सब छुपकर, तदबीर इसे कहते हैं।
हम घर लिए जाते हैं, तक़दीर इसे कहते हैं॥
(( हम ख़्वाब में वाँ पहुँचे, तदबीर इसे कहते हैं। वो नींद से चौंक उट्ठे, तक़दीर इसे कहते हैं॥ ))</Poem>