कहती हुई बहु भाँति यों ही भारती करुणामयी,<br>
फिर भी मूर्छित अहो वह दूदु:खिनी विधवा नई,<br>
कुछ देर को फिर शोक उसका सो गया मानो वहाँ,<br>
हत्चेत हतचेत होना भी विपद में लाभदायी है महा||<br>
उस समय ही कृष्णा, सुभद्रा आदि पाण्डव-नारियाँ,<br>
मनो असुर-गनगण-पीडिता पीड़िता सुरलोक की सुकुमारियाँ,<br>
करती हुईं बहु भाँति क्रंदन आ गईं सहसा वहाँ,<br>
प्रत्यक्ष ही लक्षित हुआ तब दूदु:ख दुस्सह-सा वहाँ|<br>
विचलित न देखा था कभी जिनको किसी ने लोक में,<br>
वे नृप युधिष्ठिर भी स्वयं रोने लगे इस शोक में|<br>
हा! क्या करें? कैसे रहे? अब तो रहा जाता नहीं,<br>
हा! क्या कहें? किससे कहें? कुछ भी कहा जाता नहीं|<br>
क्योंकर सहें इस शोक को? या यह तो सहा जाता नहीं;<br>
हे देव, इस दुःख-सिन्धु में अब तो बहा जाता नहीं||<br>
जिस राज्य के हित शत्रुओं से युद्ध है यह हो रहा,<br>
यों जान व्याकुल पाण्डवों को व्यास मुनि आए वहाँ -<br>
कहने लगे इस भाँति उनसे वचन मन भाये वहाँ -<br>
" हे धर्मराज! अधीर मत हो, योग्य यह तुमको नहीं,<br>
कहते भले क्या विधि-नियम पर मोह ज्ञानीजन कहीं?"<br>
यों बादरायण के वचन सुन, देखकर उनको तथा,<br>
कहने लगे उनसे युधिष्ठिर और भी पाकर व्यथा -<br>
"धीरज धरूँ हे तात कैसे? जल रहा मेरा हिया,<br>
क्या हो गया या यह हाय! सहसा दैव ने यह क्या किया?<br>