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था लोक आलोकित उसी से, अब अँधेरा है हमें,<br>
किस दोष से दुर्दैव ने इस भाँति घेरा है हमें||<br><br>
 
अब भी मनोरम मूर्ति उसकी फिर रही है सामने,<br>
पर साथ ही दुःख की घटा भी घिर रही है सामने,<br>
हम देखते हैं प्रकट उसको किंतु पाते हैं नहीं,<br>
हा! स्वप्न के वैभव किसी के काम आते हैं नहीं||<br>
कैसी हुई होगी अहो! उसकी दशा उस काल में -<br>
जब वह फँसा होगा अकेला शत्रुओं के जाल में?<br>
बस वचन ये उसने कहे थे अंत में दुःख से भरे -<br>
"निरुपाय तब अभिमन्यु यह अन्याय से मरता हरे! -<br>
कहकर वचन कौन्तेय यों फिर मौन दुःख से हो गए,<br>
दृग-नीर से तत्काल युग्म कपोल उनके धो गए|<br>
तब व्यास मुनि ने फिर उन्हें धीरज बँधाया युक्ति से,<br>
आख्यान समयोचित सुनाये विविध उत्तम युक्ति से|<br>
उस समय ही ससप्तकों को युद्ध में संहार के,<br>
लौटे धनञ्जय विजय का आनंद उर में धार के|<br>
होने लगे पर मार्ग में अपशकुन बहु बिध जब उन्हें,<br>
खलने लगी अति चित्त में चिंता कुशल की तब उन्हें||<br>
कुविचार बारम्बार उनके चित्त में आने लगे,<br>
आनंद और प्रसन्नता के भाव सब जाने लगे|<br>
तब व्यग्र होकर वचन वे कहने लगे भगवान से,<br>
होगी न आतुरता किसे आपत्ति के अनुमान से?<br>
"हे मित्र? मेरा मन न जाने हो रहा क्यों व्यस्त है?<br>
इस समय पल पल में मुझे अपशकुन करता त्रस्त है|<br>
तुम धर्मराज समीप रथ को शीघ्रता से ले चलो,<br>
भगवान! मेरे शत्रुओं की सब दुराशाएँ डालो??"<br><br>
 
 
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