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18:41, 30 जुलाई 2009 <poem>
सेवकों ने जो भी बोला और है
पर गुरों का असलचोला और है
शक्ल वाकिफ़ है यह धोख़ा है तुम्हें
आँख से हमने टटोला और है
शहर में कुछ और उस की शोहरतें
गांव में जो रंग घोला और है
ख़ूबसूरत ज़िल्द पर मज़मून है
पर जो पुस्तक को टटोला और है
साथ क्या चल पाएगा पैदल तेरे
उसके उड़ने का खटोला और है
शाम नदिया गाँव घर वादी जहाँ
प्रेम के सपनों का टोला और है
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