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नया पृष्ठ: <poem> कभी तो नीर था बहता बहू भिजाने पे अब आँख भी नहीं झुकती उसे जलाने ...
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कभी तो नीर था बहता बहू भिजाने पे
अब आँख भी नहीं झुकती उसे जलाने पे

मिला के आँख कभी बात करके देख ज़रा
डराएगा जो डरोगे डरे डराने पे

उतरते देख कि अब पूछता है कौन तुझे
हुए थे खुश वो तुम्हें पेड़ पर चढ़ाने पे

अचार डाल के लोगों ने भर लिए डिब्बे
डटे हैं आज भी हम आम ही गिराने पे

लगे हैं बोलने रोटी को रोटी अब बच्चे
ठगे ही जाओ न खुद ही इन्हें ठगाने पे

निकटता जजबसे बढ़ी प्रेम ख़त्म है तब से
मिटे हैं वहम कई पास उनके जाने पे
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