Changes

नया पृष्ठ: <poem> ज़िन्दगी घर-मन्दिरों से ऊब कर हट कर,उजड़कर रेस्टूरेंटों में य...
<poem>
ज़िन्दगी
घर-मन्दिरों से ऊब कर
हट कर,उजड़कर
रेस्टूरेंटों में
या कॉफी हाऊसों के
उन कटे से कैबिनो में
घुटन में
सटकर,सिमिट कर
जा बसी है

जो वहाँ
कॉफी की कड़वाहट मिटाने को
उसी के संग
चुपके पी रही है
रूप के,रस के
छलकते सैंकड़ों प्याले
कभी नारी की कनखियों से
कभी नर की नज़र से
</poem>
Mover, Uploader
2,672
edits