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लिखते कटते हाथ हमारे / नईम
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12:40, 19 सितम्बर 2006
एक-एक से बड़े सयानों की ये बस्ती
डुबा रहे हैं बड़े-बड़ों
को
के
बजरे कश्ती
तेल नहीं उसकीर रहे पर
यों ही बाती
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