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|संग्रह = छैंया-छैंया / गुलज़ार
}}
 
इन बूढ़े पहाड़ों पर, कुछ भी तो नहीं बदला<BR>
सदियों से गिरी बर्फ़ें<BR>
कुतबे से दरख़्तों के <BR><BR>
ना आब था ना-दानें<BR>
अलग़ोज़ा की वादी में<BR>
भेड़ों की गईं जानें<BR>
संवाद : कुछ वक़्त नहीं गुज़रा नानी ने बताया था<BR>
सरसब्ज़ ढलानों पर बसती बस्ती गड़रियों की<BR>
और भेड़ों की रेवड़ थे<BR>
गाना :<BR>
मरते हैं हज़ारों में !<BR>
इन बूढ़े पहाड़ों पर...<BR>
 
संवाद : चुपचाप अँधेरे में अक्सर उस जंगल में<BR>
इक भेड़िया आता था<BR>
और सुबह को जंगल में <BR>
बस खाल पड़ी मिलती।<BR>
 
गाना : हर साल उमड़ता है<BR>
दरिया पे बारिश में<BR>
इक दौरा -सा पड़ता है<BR>
सब तोड़ के गिराता है<BR>
संगलाख़ चट्टानों से <BR>