{{KKRachna
|रचनाकार=महादेवी वर्मा
|संग्रह=दीपशिखा / महादेवी वर्मा
}}
<poem>
दीप मेरे जल अकम्पित,
घुल अचंचल!
सिन्धु का उच्छवास घन है,
तड़ित, तम का विकल मन है,
भीति क्या नभ है व्यथा का
आंसुओं से सिक्त अंचल!
स्वर-प्रकम्पित कर दिशायें,
मीड़, सब भू की शिरायें,
गा रहे आंधी-प्रलय
तेरे लिये ही आज मंगल
'''काव्य संग्रह [[दीपशिखा / महादेवी वर्मा|दीपशिखा]] से'''<br><br>मोह क्या निशि के वरों का,शलभ के झुलसे परों कासाथ अक्षय ज्वाल कातू ले चला अनमोल सम्बल!
दीप मेरे जल अकम्पितपथ न भूले,<br>घुल अचंचल!<br>सिन्धु का उच्छवास घन हैएक पग भी,<br>तड़ितघर न खोये, तम का विकल मन हैलघु विहग भी,<br>भीति क्या नभ है व्यथा का<br>आंसुओं स्निग्ध लौ की तूलिका से सिक्त अंचल! <br>स्वर-प्रकम्पित कर दिशायें,<br>मीड़, सब भू की शिरायें,<br>गा रहे आंधी-प्रलय<br>तेरे लिये ही आज मंगल।<br><br>आंक सबकी छांह उज्ज्वल
मोह क्या निशि के वरों काहो लिये सब साथ अपने,<br>शलभ के झुलसे परों का<br>साथ अक्षय ज्वाल का<br>मृदुल आहटहीन सपने,तू ले चला अनमोल सम्बलइन्हें पाथेय बिन, चिरप्यास के मरु में न खो, चल!<br><br>
पथ न भूले, एक पग भी,<br>घर न खोये, लघु विहग भी,<br>स्निग्ध लौ की तूलिका से <br>आंक सबकी छांह उज्ज्वल।<br><br> हो लिये सब साथ अपने,<br>मृदुल आहटहीन सपने,<br>तू इन्हें पाथेय बिन, चिर<br>प्यास के मरु में न खो, चल!<br><br> धूम में अब बोलना क्या,<br>क्षार में अब तोलना क्या!<br>प्रात हंस रोकर गिनेगा,<br>स्वर्ण कितने हो चुके पल!<br>दीप रे तू गल अकम्पित,<br>चल अंचल!<br><br/poem>