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निश्छलता कितनी प्रकॄति में
रंग दूर के घुल-मिल जाते!
 
 
सुघड़ पेड़ के पास खड़े
मुँह बाये, तकते नहीं अघाते
कितने सुकुमार ललायित अंकुर
बूँद सनेह स्नेह की पा सिंच जाते!  
और कभी संध्या प्रभात मिल
सूरज दादा देर गये तक
रिरियाते छुट्टी ना पाते!
 
 
कभी पवन का बैग खोलते
काश! प्रकृति जितना देती है
अंश मात्र उसको लौटाते!
 
 
१३ नवम्बर ०८
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