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घाटी की चिन्ता / जगदीश गुप्त
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16:12, 21 अगस्त 2009
सोच रही है कब से
::
बादल ओढ़े घाटी।
कितने तीखे अनुतापों को
आघातों को
सहते-सहते
जाने कैसे असह दर्द के बाद
-
::
बन गई होगी पत्थर
इस रसमय धरती की माटी।
</poem>
अनिल जनविजय
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