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अनछुए / सरोज परमार

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|रचनाकार=सरोज परमार
|संग्रह= घर सुख और आदमी / सरोज परमार
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[[Category:कविता]]
<poem>इतिहास में उपेक्षा की एक कड़ी
और जुड़ गई ।
साथ छोड़ गया अक्स
बन्धनों में एक दीवार
टूट रहा है मियार
लाँघ गई है धूप आज मेरा आँगन
गौरेया ने लिया न दाना,दुनका।
सन्ध्या का झुटपुटा
या मन का उखड़ापन
केवड़े के फूल का सपना
पत्थर के नीचे कुचला गया है।
आओ भी। किसी अनछुए प्रश्न
को बिलोएँ।
बढ़े आ रहे हैं हाथ रोशनी
के लुटेरों के
किसी सूरज को मेरे आँचल
में पनाह लेने दो। </poem>
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