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22:36, 21 अगस्त 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=हरकीरत हकीर
}}
<poem>अक्सर सोचती हूँ
खुद को बहलाती हूँ
कि शायद....
छुटे हुए कुछ पल
दोबारा जन्म ले लें ....
दुःख, अपमान,क्षोभ और हार
एहसासों भरे निष्कासन का द्वंद
नाउम्मीदी के बाद भी
आहिस्ता-आहिस्ता बनाते हैं
संभावनाओं के मंजर .....
पिघलते दिल के दरिया में
इक अक्स उभरता है
किसी अदृश्य और अनंत स्रोत से बंधा
इक जुगनुआयी आस का
टिमटिमाता दिया ......
बेचैन उलझनों की गिरफ्त
प्रतिपल भीतर तक धंसी
उम्मीदों को
बचाने की नाकाम कोशिश में
टकरा-टकरा जातीं हैं
एक बिन्दु से दुसरे बिन्दु तक ......
तभी.....
वादियों से आती है इक अरदास
सहेज जाती है
मेरे पैरों के निशानात
बाँहों में लेकर रखती है
ज़ख्मों पर फाहे
सहलाती है खुरंड
आहात मन की कुरेदन
तलाशने लगती है
श्मशानी रख में
दबी मुस्कान.......!! </poem>