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22:55, 21 अगस्त 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=हरकीरत हकीर
}}
<poem>(१)
ढोलक की ताल पर
वह मटकी
पावों में घुंघरु
छ्नछ्नाये
उभार
थरथराये
जुबां
होंठों पे फिराई
चुम्बन
उछले
दर्द हाट में
बिकने लगा .....!!
(२)
पूरी दुनियां में
जैसे उस वक्त रात थी
वह अपनी दोनों
खाली कलाइयों को
एकटक देखती है
और फ़िर सामने पड़ी
चूड़ियों को ....
तभी
वक्त आहिस्ता से
दरवाज़ा खोल बाहर आया
कहने लगा ....
नचनिया सिर्फ़ भरे हुए
बटुवे को देखतीं हैं
कलाइयों को नहीं...
दर्द ने करवट बदली
और आंखों के रस्ते
चुपचाप ....
बाहर चला गया ....!!
(३)
लालटेन की
धीमी रौशनी में
उसने वक्त से कहा -
मैं जीवन भर तेरी
सेवा करुँगी
मुझे यहाँ से ले चल
वक्त हंस पड़ा
कहने लगा -
मैं तो पहले से ही
लूला हूँ ....
आधा घर का
आधा हाट का ....!!</poem>