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मशवरा: दो / शीन काफ़ निज़ाम
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07:05, 22 अगस्त 2009
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{{KKRachna
<poem>
बहुत पुरानी
हमारे रिश्तों की सब क़बाएँ
<ref>वस्त्र (कबा का बहुवचन)</ref>
जगह-जगह से
इसीलिए सब मसक रही हैं
अनिल जनविजय
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