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कभी-कभी / केशव

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|रचनाकार=केशव
|संग्रह=धरती होने का सुख / केशव
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<poem>
कभी-कभी आदमी
अपने कद क़द से ही
डर जाता है
अपने किए के लिए
बिन मरे ही मर जाता है
यह इसलिए होता है
कि वह अपने कद क़द से
छोटा होकर
दूसरे के कद क़द में आँख मूंद
लगा देता है छलांग
और अपने दुख से
लगा देता है सेंध
और कभी-कभी
अपने कद क़द से
बड़ा भी हो जाता है आदमी
कभी-कभी डूबकर भी
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