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अपरिहार्य / केशव

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<poem>मुझसे कहा गया है अक्सर कि ज़िन्दगी में
चलता है सब-कुछ
मैं इस चलने में साफ
साफ देख रहा हूँ अपनी संवेदना की मौत
और सारे के सारे रासतों पर उगते झाड-झंखाड़

क्यों मुझे यह सिखाया जा रहा है कि आदमी
जी सकता है अगर तो बस अपने से अलग
रहकर और अपने से जुड़ने की हर कोशिश
कदम है एक आत्महत्या की ओर

क्या अपने पर हमारी आस्था इतनी छोटी
हो गई है बार-बार हमें सुरक्षा के लिये
खंडित मूर्तियों के सामने आँखें मूँदकर कुछ
रटी-रटाई घिसी-पिटी प्रार्थनाएँ यंत्रवत
दोहरानी होती हैं और उनसे प्राप्त आस्था
को विज्ञापन की तरह माथे पर चिपकाए
गुज़रना होता है गलियों बाज़ारों में-से

मुझे भी यह आस्था सलीब की तरह बहन
करनी पड़ रही ह्ऐ क्योंकि घुमाव के सभी
अधिकार बड़े लोगों की लम्बी जेबों में
इतिहास के पृष्ठ रंगने के लिये पड़ॆ हैं

मेरे हाथों में हर-रोज़ धर दिया जाता है
एक न एक नशा नींद से जब मैं जागता
हूँ तब तक फैल चुका होता है चारों ओर
अंधकार या काले खून के अनगिनत
धब्बे रौशनियों की जगह
</poem>
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