Changes

दफ्तर से लौटते हुए / केशव

3,439 bytes added, 09:58, 22 अगस्त 2009
नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केशव |संग्रह=अलगाव / केशव }} {{KKCatKavita}} <poem>उसे झट से अंत...
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=केशव
|संग्रह=अलगाव / केशव
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>उसे झट से अंतिम बार चूमकर
खाली कर दिया मुझे

मुझे सुनाई दे रही थी
द्वार के करीब होती
:::पदचाप
कोई दहलीज़ के उस पार
ठिठका
हल्के नीले पर्दे पर
एक मुट्ठी किंचित झुकी
:::खुली
और गहरे नीले उजास में सरकते
:::पीले साँप के समान
रेंगीं उंगलियाँ
मैं एक झटके से
कंधे पर कोट टाँग
पिछले दरवाज़े से
:::निकल आया बाहर

आसमान पहले ही की तरह
लटका था ऊबड़-खाबड़
जैसे बकरे का कटा हुआ सर
किसी आवारा औरत की तरह
गली करने लगी थी
::::चहलकदमी
हाथों में जामुनी रंग के फूल लिये लोग
जिनकी तंग सुरंग-सी आँखें
उलीचने को थीं तैयार
दिन भर की नसों में दौड़ती
:::::ऊब
बाँस की झिड़कियाँ
और सावधान कोशिश से बचाया
:::::अपना एक अंश
उनके चेहरे पर बैठा साँप
धीरे-धीरे खोल रहा था

:::अपनी गंजलक
आपस में टकराते हुए
पतझर की हवा में टकराते
:::पत्तों की मानिंद
आ-जा रहे थे
डालते हुए एक दूसरे पर
:::चोर दृष्टियाँ
शब्द तैर रहे थे लापरवाह
गली में फैल रहे उस
:::बैंगनी अंधेरे में

पहुँचना चाहते थे सभी
एक कतार में जलती-बुझती
उन खिड़कियों के अन्दर
पहुँचकर
लौटना चाहते थे फौरन
:::::खाली चैम्बर लिये

मेरे शरीर को नहीं मिल सकता था
चारों ओर जंगल-सी फैली
उस भीड में
क्योंकि कहीं भी नहीं थे
:::ज़िन्दगी के चिन्ह
मैं अकेला छूट गया था जैसे
बस स्टाप पर अंतिम बस
मुझे नहीं पहुँचना था कहीं भी

खुले में आकर
भरपूर कश खींच
उगल देता हूँ घुएं का अम्बार
अचानक एक ख्याल
मेरे दिमाग में
जुगनू की तरह जलकर बुझ जाता है:
कहाँ होगा इस सिलसिरे का अन्त
जो कहीं से नहीं होता शुरू</poem>
Mover, Uploader
2,672
edits