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10:00, 22 अगस्त 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=केशव
|संग्रह=अलगाव / केशव
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{{KKCatKavita}}
<poem>कोई नहीं
कोई नहीं करता इंतज़ार
सड़क चलती रहती लगातार
अपनी ही गति में गुम
मुझे नहीं जाना है कहीं
पीली धुएं पर उतरती इस शाम
एक लौंपपोस्ट के नीचे खड़ा हूँ मैं
सामने लुढ़कती जा रही हैं
रोशनियाँ
जैसे ढलान से लुढ़कते हों पत्त्थर
खिडकियों के काँच पर
इक्का दुक्का सलवटों भरी
थकी छायाएँ
लगी हैं उभरने
कितनी अकेली
कितनी दूर
कोई नहीं है किसी के साथ
शब्द लंगड़ाते हुए
आ-जा रहे हैं
रेडियो पर मुड़े-तुड़े काग़ज़-सी
बजने वाली धुनें
गिरने लगी है मेरे पास आ-आकर
व्यस्तता किसी विज्ञापन-सी
चिपकी है हर चेहरे पर
सबके हाथ हैं भरे हुए
पर आँखें सूनी सड़क-सी
अगले मोड़ पर टँगी हैं
चल रही है सड़क
अकेली
बेलौस
धड़कती है पदचापें उसके सीने में
अलग-अलग हैं सब
सबकी अपनी-अपनी धुन
कोई नहीं है किसी के साथ
और मैं खड़ा हूँ
कभी उनको
कभी आसमान को ताकता हुआ
जिसे कहीं नहीं जाना है
इन सबके साथ
</poem>