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संप्रेषण / केशव

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<poem>अर्थ
अर्थ सब शब्द हो गये हैं
शब्द ही शब्द
जिनके न है आगे कुछ न पीछे
और धुँधला पड़ गया है
बीच का आईना
उन्हें ओढ़कर चलने के क्या फ़ायदा अब
जो न मुझे पहुँचाते और
न लौटाते हैं
मैं खड़ा हूँ जहाँ का तहाँ
चश्मे की तरह आँखों पर चढ़ाये उन्हें
या च्युँईंगम की तरह दाँतों तले दबाएँ
वे मात्र एक थकान पैदा करते हैं
या फिर भर देते हैं मुझमें
लोगों तक पहुँचने का झूठा दंभ

अब जब मैं इस रेलिंग से झाँकता हूँ
नीचे

दिखाई देते हैं
शब्द ही शब्द
दूर दूर तक चींटियों की तरह फैले हुए
लगता है
उग आये हैं उनके
नन्हें नन्हें पंख
और अर्थों की यह आखिरी उड़ान
लगती है अंतिम कड़ी
इस सिलसिले की

शब्द
राह नहीं
मात्र चमकदार पत्थर हैं राह के
जिन्हें अंगूठी में नग की तरह पहन
हुआ जा सकता है कुछ देर के लिये
अंधकार से मुक्त
</poem>
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