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चक्रव्यूह / केशव

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<poem>मेरे भीतर व्याप्त
जंगल का यह सन्नाटा
जड़ तो नहीं

लेकिन इसकी धड़कनों को
पकड़ने के लिये फैंका हुआ
शब्दों का जाल
हर बार खाली ही सिमट आता है

कुहरा होता जाता है घना
और डूबने के प्रति सजग रहते हुए भी
निरंतर डूबता जाता हूँ मैं

जिस दिशा में भी मुड़ते हैं पाँव
हर चीज़ मिलती है
एक दोधारी तलवार की तरह पड़ी हुई
और हर रास्ता मरीज़ की
निस्तेज आँखों की तरह
मेरे बढ़े हुए हाथ हमेशा की तरह
बर्फ़ की सिल्लियों को छूकर
लौट आते हैं

अपनी आँखों के नीचे
स्याह गढों को टटोलकर मैं
आईने को तोड़ने का
असफ़ल प्रयास करता हूँ
लेकिन इस कोशिश में
मेरे अपने ही चेहरे की रोशनी
हो जाती है

ट्कड़े-टुकड़े

इस सबके बावजूद भी मेरे भीतर
जो हो रहा है उसे पकड़ने के लिए
उतरता है फिर
उसी गूँगी दुनियाँ में
जो ला पटकती है मुझे
हर बार
एक भुरभुरी चट्टान पर

अपनी इस लड़ाई में
शरीक करना चाहा जिसे
वह शायद पहले ही से
गंवा बैठा था खुद को
उस गूँगी दुनियाँ
और उसका दिमाग
लड़खड़ा रहा था
चकाचौंध में
अनिश्चय की लीक पकड़े वह
देखता रहा
मेरे साथ अंधेरा पार करने का स्वप्न
जब तक आभास हुआ मुझे इसका
कर चुका था उसके साथ मैं
ल लौट सकने की सीमा तक
सफ़र
प्रश्नों की गीली मशाल सुलगाने
खुद को आग में झोंक देने के बाद भी
धुएँ की लकीरें ही फैली
चारों ओर

जानता हूँ
लड़ाई यह ख़त्म नहीं होती कभी
लेकिन कुछ पाने के लिए
पागलपन की हद तक जाकर भी
अधिक से अधिक
हासिल होती है
परछाईयाँ

क्या इतने भर के लिए ही
जारी रहेगी यह अंधी दौड़
और नियति के नाम पर होती रहेगी
बार बार इस चक्रव्यूह की रचना
खुद को क़त्ल कर देने के लिए
आखिरकार</poem>
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