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सृजन / केशव

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<poem>कहने पर भी कहीं
कही जाती है पीड़ा
पीड़ा की भूमि पर उगाता हूँ
फूल,वृक्ष,लताएं
सींचकर संचित अनुभवों से अपने

लोग कहते हैं:
वाह क्य्आ सुन्दर है फूल
कितना सघन वृक्ष
इतनी कोमल लताएँ
और
फूल तोड़
वृक्ष तले विश्राम कर
छूकर लताएँ
चले जाते हैं ज़मीन को रौंद
जिसने दिया जन्म
सुन्दरता,सघनता,कोमलता को

मेरे पास बच जाती है फिर
भूमि

जोतता हूँ हल
खोदता और गहने
शायद पीड़ा इस बार
कुछ अधिक फल जाये
</poem>
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