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10:35, 22 अगस्त 2009 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=केशव
|संग्रह=अलगाव / केशव
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{{KKCatKavita}}
<poem>तुमने दिया दर्द उसे झेलने की शक्ति क्यों
दी इसलिये के मैं बार-बार तुम्हें अपनाऊँ
जब भी लौटूँ शिशु की तरह दुबकने के लिए
तुम्हारी गोद में जब भी तुम्हें पाया है
मैंने तो इन्हीं क्षणों में जिनमें तुम्हारा
हृदय बच्चों की तरह हो उठता है दयालु
और तुम्हारा मर्म नदी के कोमल सीत्कार
से ओतप्रोत
मेरे होंठों पर हो तुम्हारे लिए एक प्रार्थना
और आँखों में बसंत के किसी दिन का मुग्ध
आकाश ऐसा तुमने अक्सर चाहा है
यह सब तुम्हें बहुत-बहुत अच्छा लगता
है और अच्छा लगता है इस सबसे
प्यार करना धीरे-धीरे झरना सफेद
फूलों की तरह उस राह पर जिससे
होकर मैं पहुँचता हूँ तुम तक
पर तुम यह क्यों नहीं समझतीं के कोई
भी सिलसिला आखिरी नहीं होता
स्वीकार के बाद भी कुछ है जो
अस्वीकृत रह जाता है जिसके लिए
छटपटाता है हमारा ह्र्दय और हम
प्रत्येक बार करते हैं पहले की अपेक्षा
गहरा आलिंगन पर दर्द नहीं
करता स्वीकार हमें खुला छोड़ देता
है एक और मुक्त पल की प्रतीक्षा में
क्या हम अधीरता से नहीं करते उस पल की
प्रतीक्षा नहीं भर लेते फिर से खुद को उ
उड़ान के लिए पंछी जैसे हवा से भर
लेते हैं अपने पँख
टहनियों पर नन्हीं चिड़िया की तरह फुदकता
सूरज तब कूदकर अचानक हमारे बीच जगाता
हमें समर्पण से और तुम्हारी आँखों में मूँद
जाते हैं कितने ही फूल लज्जा के इस पल
में तुम्हारे लिये जीवित होता है संसार
पर दर्द क्यों रह-रह जीवित हो उठता है
हमारे बीच
</poem>