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11:04, 22 अगस्त 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=केशव
|संग्रह=अलगाव / केशव
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{{KKCatKavita}}
<poem>बरसते हुए मेह के साथ
धीरे-धीरे उतरती है
तुम्हारी अनुपस्थिति
इन क्षणों में
पोर-पोर कसती
हँसी तुम्हारी
घर के कोने-कोने में
रह-रहकर
भोर की घंटियों-सी बजती है
कि तुम कहाँ हो
कितने अंतरंग होते हैं
ये पल
जब मन तुम्हारी याद क्ए सिवा
और कहीं नहीं भटकता
छा जाता है
तमाम स्मृतियों पर
उदासी का एक हल्का-सा
बादल
क्यों बरसता मेह
छोड़ जाता है मेरे पास
बार-बार तुम्हें
ऐसे में तुम्हारे लिए
उड़ाता रहूँ अनगिनत पंछी
करता रहूँ बादलों से प्रार्थना
बरसो, और बरसो
कि तन को बाँध रहा तन
</poem>