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19:47, 22 अगस्त 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=केशव
|संग्रह=अलगाव / केशव
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{{KKCatKavita}}
<poem>कोई नहीं बिठाता।
कोई नहीं बिठाता अपने साथ
बस की सभी सवारियाँ
कहतीं हट हट!
खड़ी हो जा दरवाज़े में।
दरवाज़े की खिड़की से
चालती बस में मुँह बाहर निकाल
करती है उल्टी
मैली मज़दूरन।
उल्टी का राज़
जानता है
परेशान खड़ा पति।
सफ़र र्में बस लगती है गरीब को
अमीर सोये रहते आराम से
औरत को उल्टी, कभी होती खुशखबरी
कभी बहुत ही दुखखबरी।</poem>