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इतना तो है / सुदर्शन वशिष्ठ

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<poem>कि तुम बैठे हो चैन से
नहें है सामने कोई
घोंघे सा विरोधी
जो मुँह खोल में छिपा
कर रहा शरारत।

कर रहा शरारत
छिप रहा
कैसे लड़ोगे ऐसे प्रतिद्वंदी से
जो वार भी सामने नहीं करता
और जिसे पकड़ने से घिन आए।

इतना तो है
नहीं चला रह कोई बाण
पीछे से
शिखण्डी को आगे कर
तुम सह लोगे बाण पर बाण
नहीं सह सकोगे शिखण्डी के बोल।

इतना तो है
तुम बैठे हो अपनी सीट पर
आराम से

कोई नहीं डगमगा रहा तुम्हारी कुर्सी।
इतना तो है

पूरी आज़ादी न सही
है तुम्हें इजाज़त
अधूरी बात कहने की।

इतना तो है
लोग पूछते हाल
बीमार होने पर ही सही।

इतना तो है
सिर पर है छत
घर में है दानें
हादसा होने पर
लोग आ जाते समझाने।


गामा,दारा न सही
इतना तो है तुम में
बेशक लोग आ जाएं आज़माने।
इतना तो है
तुममें है जज़्मा
साब सहने का
बार-बार गिर कर
उठ जाने का।
</poem>
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