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{{KKRachna
|रचनाकार=सुदर्शन वशिष्ठ
|संग्रह=सिंदूरी साँझ और ख़ामोश आदमी / सुदर्शन वशिष्ठ
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<poem>पहले राजा करते थे
अब
आदमी ने कर ली है किलेबंदी।

रहता है वह अपने किले के भीतर
भारी द्वार बन्द कर
न भीतर आता है कोई
न बाहर जाता है
इज़ाज़त बिना।

दिमाग के तहक़ःआने में भरी हैं
विरोधियों की ज़िन्दा लाशें
मन के कूँएं में मनमुटाव
तमाम तनाव

कहीं खाई खंदक में
धारणाओं के ज़ंग लगे हथियार।

यह सही है कि
हमलों से बचाव के लिए
अच्छी है किलेबन्दी।

उसूलों की किलेबन्दी खतरनाक नहीं है
न ही मान्यताओं की
धर्म की भी घातक नहीं उतनी
न ही वर्ग समुदाय की।

सब से खतरनाक है
विचारों की किलेबंदी।
</poem>
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