1,709 bytes added,
20:11, 22 अगस्त 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सुदर्शन वशिष्ठ
|संग्रह=सिंदूरी साँझ और ख़ामोश आदमी / सुदर्शन वशिष्ठ
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>सैंकड़ों हज़ारों हज़ार लोग मर रहे बेमौत
मैं ज़िन्दा हूँ
हज़ारों लोग से रहे हैं भूखे
मैं रजा हुआ हमेशा
नींद नहीं है लाखों लोगों को
उठ नहीं पाता मैं अलसुबह
बेतहाशा लोग फिर रहें हैं मारे-मारे
मैं सुस्ताता चैन से
बहुत से लोगों के पार बहुत कुछ नहीं है
इच्छा नहीं मुझे कुछ पाने की
बहुतेरे रहते हैं सहमे-सहमे
मैं चलता बोलता निधड़क
बहुतेरे लिये जा रहे धर्म ध्वज
न मैं धर्मी न विधर्मी।
बहुत कुछ है मेरे पास
मन कहता है ये नहीं है वो नहीं है
ये होता तो कितना अच्छा होता
वह सब होता तो कितना अच्छा होता
वह सब होता तो
शायद मैं भी मार दिया जाता
जैसे मारे जा रहे हैं रोज़ कई लोग।
</poem>