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{{KKRachna
|रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी
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<poem>
दीदनी है नरगिसे - ख़ामोश का तर्ज़े - ख़िताब
गह सवाल अन्दर सवालो - गह जवाब अन्दर जवाब।

जौहरे - शमशीर क़ातिल हैं कि हैं रगहा - ए - नाब
साकिया तलवार खिचती है कि खिचती है शराब।

इश्क़ के आगोश में बस इक दिले-ख़ानाख़राब
हुस्न के पहलू में सदहा आफ़्ताबो - माहताब।

सरवरे- कुफ़्फ़ार है इश्क़ और अमीरुल-मोमनीं
काबा-ओ-बुतख़ाना औक़ाफ़े - दिले - आलीजनाब।

राज़ के सेगे में रक्खा था मशीअत ने जिन्हें
वो हक़ायक़ हो गये मेरी ग़ज़ल में बेनक़ाब।

एक गँजे-बेबहा है, अहले-दिल को उनकी याद
तेरे जौरे - बे नहायत, तेरे जौरे - बेहिसाब।

आदमीयों से भरी है, ये भरी दुनिया मगर
आदमी को आदमी होता नहीं है दस्तयाब।





</poem>
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