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ढलना-1 / सत्यपाल सहगल

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|रचनाकार=सत्यपाल सहगल
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<poem>यह ध्वनियों के जाने का वक्त है
धीरे-धीरे मंच सूना होगा और वे जायेंगी अपने ठिकानों पर
एक आवाज़ जो पीछे छूट गई होगी उसकी
हड़बड़ाहट का साफ पता चलेगा
यह होगा दैनिक उदासी का क्षण
हालाँकि दिन में शर्मानाक चीख पुकार थी और कल्लो-गारत
स्पष्ट होंगी मनुष्य की नश्वरता और अंत
हालाँकि वे कल फिर लौट कर आयेंगी
जैसे वे आज लौट कर आयी थीं
धीरे-धीरे कुछ चीज़ें डूब जायेंगी कुछ होंगी साफ़
जैसे रात
</poem>
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