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19:57, 31 अगस्त 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सुदर्शन वशिष्ठ
|संग्रह=अनकहा / सुदर्शन वशिष्ठ
}}
<poem>
बहुत बार यंत्रवत खड़ा हो जाता हूँ
ऐसा बहुत बार होता है
एकाएक खड़ा हो जाता है आदमी
जैसे धमनियों की जगह हो तारें
जो बन्धी हो एक स्विच में
और स्विच पर कोई हाथ रखे जाने अनजाने।
ऐसा बहुत बार होता है
एकदम खड़ा हो जाता हूँ मैं
बोलता हूँ अंग्रेज़ी
कभी हिन्दी कभी पहाड़ी
या कोई ऐसी भाषा जिसे मैं खुद नहीं जानता
जैसे दैवी शक्ति के प्रवेश पर
बोलने लगते हैं अनपढ़ गूर अंग्रेज़ी।
मैं गूर हो जाता हूँ
काँपता हुआ
वही बोलता हूँ उसी ज़बान में
जिसे बुलवाता है देऊ
लोग कह उठते हैं देऊआ परमेसरा!
तू ही है बे। तुध ही करेना। तेरी जैजैकारा हो!
उन दुखदायी क्षणों के बाद गूर आदमी हो जाता है
बोलता है खरी खरी
पहचानता है सच-झूठ खरा-खोटा अपना-पराया
इसे 'खेल' कहते हैं
खेलता है गूर
आदमी होगा आदमी से दूरी पर
जब कोई ज़ोर से देगा आवाज़
शायद कहीं दूर
दूसरा आदमी सुनेगा
तब बहुत प्यारा लगेगा
आदमी को आवाज़ पर आदमी।
</poem>