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{{KKRachna
|रचनाकार=दुष्यंत कुमार
|संग्रह=साये में धूप / दुष्यन्त कुमार
}}
[[Category:ग़ज़ल]]
ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा<br>मैं सजदे में नहीं था आप को धोखा हुआ होगा<br><br>
यहाँ तक आते आते सूख जाती हैं सभी नदियाँ<br>मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा<brsup>*<br/sup>
ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते<br>
वो सब के सब परेशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा<br><br>
तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुन कर तो लगता है<br>कि इंसानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा<br><br>यहाँ तक आते—आते सूख जाती हैं कई नदियाँ
कई फ़ाके बिताकर मर गया जो उस के बारे में<br>वो सब कहते हैं अब ऐसा नहीं ऐसा मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा<br><br>
यहाँ पर सिर्फ़ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं<br>
ख़ुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा<br><br>
चलो अब यादगारों ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की अंधेरी कोठरी खोलें<br>कम से कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा<br><br><br>आहट नहीं सुनते
वो सब के सब परीशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा   तुम्हारे शहर में ये शोर सुन—सुन कर तो लगता है कि इंसानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा   कई फ़ाक़े बिता कर मर गया जो उसके बारे में वो सब कहते हैं अब, ऐसा नहीं ऐसा ,ऐसा हुआ होगा   यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बसते हैं ख़ुदा जाने वहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा   चलो, अब यादगारों की अँधेरी कोठरी खोलें कम—अज—कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा   <sup>*</sup> ''अपने मित्र के.पी शुंगलु को समर्पित जिन्होंने मतले का विचार दिया ''<br><br>''फ़ाका = भोजन ना मिलने पर भूखे रहने की स्तिथि ; जलसा = उत्सव''<br><br>