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{{KKRachna
|रचनाकार=सुदर्शन
|संग्रह=अनकहा / सुदर्शन वशिष्ठ
}}
<poem>कहते हैं
लड़ता रहा था वह बिना सिर
था महान योद्धा
अकेला लड़तारहा बीच शत्रुओं के
कि अचानक काट दिया किसी ने सिर


मुट्ठी में तलवार मजबूत कद काठी
लड़ता रहा था बीच शत्रुओं के
मार गिराए कई कई भगाए
सवार था नीले घोड़े पर

गुग्गा छत्री था वह
शत्रु नहीं जान पाए घबराहट में
जाना अपने ही सैनिक ने

कि लड़ रहा है वह बिना सिर
जैसे ही बताया गया उसे
बस ढेर हुआ।
मच गया शोर मर गया! मर गया।


आदमी को दिखाना उसकी सीमा
तोल कर रख देना शक्ति
उसकी मौत है
ज़िन्दा रहता है आदमी
यदि न बताया जाए
कि वह मर गया है।
हाँ,तो बिना सिर ही होती है लड़ाई हमेशा
अलबत्ता सिर के न होने का अहसास
धराशायी करता है
सिरों से लड़ाई चौपाह्यों की है
आदमी बिना सिर ही लड़ता है
बहादुर वही जो बिना सिर लड़े।

</poem>
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