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हाइकू / सूर्यभानु गुप्त
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06:50, 1 सितम्बर 2009
सड़क-गली,
सूरज तो हो गया,
ग़ुलाम अली.
मिली नज़र,
खिली एक लड़की,
गुलमोहर!
रेत पे पाँव,
याद आ रही है माँ,
पेड़ की छाँव!
बैसाखी छड़ी,
सूर्य ने घुमाई यूँ,
छू हुई नदी।
पियरा गई
फ़सलें, दुलहनें
घर आ गईं!
टेसू के फूल
खिले दुपहर में,
संझा को धूल!
हर घर में,
फूलों के गुलदस्ते
कैलेण्डर में !
मेघ जी हँसे
ऐसे कि मछुओं के
जाल में फँसे!
बात-बात में,
दीवारें गिरती हैं,
बरसात में!
बनजारों में
तू-तू, मैं-मैं, बौछारें,
अख़बारों में!
अहा, झरना!
पर्वतों का वनों से
बात करना!!
टूटे बादल,
बीच सड़क पर,
नाचे पागल !
गीले रूमाल,
उड़ते हैं आँखों में
नावों के पाल!
धड़की छाती
बूढ़े बरगद की,
बिजली नाची!
पटुआँ बोला--
मैना! देगी शादी में
कितने तोला?
हँसी लड़की!
सहसा दीवार में—
एक खिड़की!
थर्मामीटर
रात, चांदनी जैसे
पारा भीतर।
तनहाई में,
देहों के टाँके टूटे
पुरवाई में!
नीम का पेड़
देख रहा है, सूनी
खेतों की मेड़|
चेहरे भाप!
इस युग में मिला
पानी को शाप!
महंगी सस्ती,
मिलते ही मिट्टी में
उड़ती मिट्टी!
टीं-टीं-टीं हिकू!
चील एक चिल्लाई
हुआ हाइकू!
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अनिल जनविजय
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