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08:56, 4 सितम्बर 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार= गिरधर राठी
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<poem>
वह पूर्ण है
उसके भीतर से
निकलेगा पूर्ण
पूर्ण के भीतर से पूर्ण के निकलने पर
पूर्ण ही बचेगा
निकले हुए पूर्ण के भीतर से निकलेगा
पूर्ण
होती रहेगी परिक्रमा पूर्ण की
यही है विधान
किन्तु यह विधि का
अविकल उपहास है
इसीलिए
पूर्णांक होकर भी
कोई हो जाता है कनसुरा
कोई कर्कश कोई करूणाविहीन...
इस तरह विधाता को पूर्णता लौटाकर
आधे-अधूरे हम सब
रखते हैं उस को प्रसन्न !