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{{KKRachna
|रचनाकार=अमित कल्ला
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इसक
की
कुछ आहट
जरुर लगती है
जिधर देखो
असंख्य दृश्य
अपने सा
अर्थ देते
पढ़पढ़कर पढ़-पढ़कर
नन्हे निवेदन
केवडे के फूल
उस अपार नूर का
चुग्गा चुग जाते
अकह को कहकर
अगह को गहकर
कैसी कैसी
गनिमते गिनते हैं
दबादबाकर दबा-दबाकर
गहरी रेत में
कितना पकाया जाता
भरी-भरी आँखों के सामने ही
बाहर निकल
पी जाते
अमर बूटी
मीठा महारस
तभी तो
हर इक
चेहरे को
ज्यों की त्यों
अल्लाह की जात
अल्लाह के रंग
का
पता देते हैं
इसक
की
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